वृद्ध होना
दरअसल ईख का पकना है
बूंद-बूंद बटोरा गया अनुभव
जड़ से कलगी तक भिन जाता जीवन-रस में।
यतीन्द्र मिश्र हिन्दी के लिए एक सुखद आश्वस्ति की तरह हैं. उनके रचनाकर्म का फलक इतना बहु-आयामी है कि उन्हे किसी एक परिचय के दायरे में ला पाना लगभग असंभव है. वे संवेदनशील कवि हैं, सूक्ष्मदर्शी सम्पादक हैं, उत्कृष्ट अनुवादक हैं, आत्मीय कला समीक्षक हैं, सरोकारी संस्कृति-कर्मी हैं और गहरे संगीत अध्येता हैं. हालांकि ऐसी विलक्षण और समावेशी प्रकृति की प्रतिभा के स्वामी यतीन्द्र मिश्र से जब एक पंक्ति में उनका परिचय पूछा जाता है तो वे बड़ी विनम्रता से कह देते हैं- मूलत: मै एक कवि हूं.
12 अप्रैल 1977 को अयोध्या में जन्मे यतीन्द्र मिश्र हिन्दी के समकालीन युवा कवियों में अग्रणी हैं. उन्होने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी में परास्नातक की उपाधि स्वर्ण पदक के साथ प्राप्त की. इसके बाद फैजाबाद के राम मनोहर लोहिया विवि से उन्होने हिन्दी में पीएचडी पूरी की. उनके अब तक तीन कविता संग्रह- ‘यदा-कदा’, ‘अयोध्या तथा अन्य कविताएं’ और ‘ड्योढ़ी पर आलाप’ प्रकाशित हो चुके हैं. जिन्हे साहित्य जगत में बड़ी प्रशंसा मिली है.
यतीन्द्र की कविताएं, सूक्ष्म वैयक्तिक अनुभवों के बीच उनकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के प्रति उनके गौरव-बोध और संवेदनशीलता को साथ लेकर चलती हैं. कलाओं के प्रति यतीन्द्र के अनुराग ने उनकी कविताओं को भी एक अतिरिक्त मृदुलता, माधुर्य और कलात्मकता भी अनायास ही दे दी है. जो कि उनके समकालीनों में दुर्लभ है. लेकिन विभिन्न भारतीय कलाओं को समकालीन सन्दर्भों में खुद में रचाती-बसाती ये कविताएं अपने नैतिक दायित्वों से भी दूर नहीं होतीं. उनकी कविताओं हमारे समय के कुछ सबसे महत्वपूर्ण प्रश्नों को भी उठाती हैं और कई बार उनके उत्तर भी ढूंढती हैं. इनमें साम्प्रदायिकता,दंगे, बाबरी ध्वंस,धर्म,उदारीकरण,समाज के संवेदना का क्षरण और सांस्कृतिक अन्तर्सम्बन्ध आदि कई विषय समाहित हैं.
डा. हरिवंश राय बच्चन कहा करते थे कि एक कवि जब गद्य लिखता है तो सामान्य गद्य लेखकों की अपेक्षा अनूठा और अधिक सरस लिखता है. यतीन्द्र मिश्र का गद्य बच्चन के इस कथन का प्रमाण है. उस समय में जब मुख्य धारा के संचार माध्यमों में कला-संस्कृति के लिए स्थान लगातार घटता जा रहा है एवं सामग्री लगातार हलकी होती जा रही है, यतीन्द्र इन विषयों पर अनवरत अत्यंत स्तरीय लेखन कर रहे हैं. इस दिशा में उनका काम बेहद महत्वपूर्ण है. क्योंकि हिन्दी में कलाओं पर इस तरह अधिकार से लिखने वाले लेखकों का सर्वथा अभाव है. उनका लेखन हमें कलाओं को समझने के कई नए आयाम और उनके आनंद की कई नई अनुभूतियां देता है.
शास्त्रीय गायिका गिरिजा देवी, नृत्यांगना सोनल मान सिंह और शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खान पर लिखी गईं उनकी किताबें क्रमश: ‘गिरिजा’,’देव-प्रिया’ और ‘सुर की बारादरी’ हिन्दी में इन विषयों पर अद्वितीय हैं. इनको पढ़ने का अपना एक आनंद है. यतीन्द्र जब बिस्मिल्लाह खां पर लिखते हैं तो जैसे उस्ताद की शहनाई अविकल हमारे कानों में गूंजती रहती है. बिस्मिल्लाह खां पर उनका निबंध सीबीएसई की दसवीं के और दिल्ली राज्य बोर्ड के आठवीं के पाठ्यक्रम में भी शामिल है. उन्होने प्राचीन काल की कन्नड़ शैव कवियित्री अक्क महादेवी के वचनों का हिन्दी में पुनर्लेखन किया है जो कि ‘भैरवी’ नाम से प्रकाशित हुआ है. पिछले साल ही कला और संगीत पर उनके निबन्धों की पुस्तक ‘विस्मय का बखान’ भी प्रकाशित हुई है जिसका महत्व और आनंद कला-संगीत को जीने वाला कोई रसिक-हृदय ही जान सकता है.
यतीन्द्र की ख्याति हिन्दी के कुशल सम्पादक के बतौर भी है. वरिष्ठ कवि कुंवर नारायन का रचना संचयन-‘संसार एवं उपस्थिति’ तथा अशोक वाजपेयी के गद्य का संचयन-‘किस भूगोल में किस सपने में’, उन्होने किया है. इसके अतिरिक्त अज्ञेय के काव्य से एक चयन ‘जितना तुम्हारा सच है’ प्रकाशित है. साथ ही कुंवर नारायण के नोट्स और अंत: प्रक्रिया संचयन उन्होने ‘दिशाओं का खुला आकाश’ नाम से सम्पादित किया है. बृजभाषा के रीतिकालीन कवि द्विज देव की ग्रन्थावाली भी उनके सह-सम्पादकत्व में प्रकाशित हुई. इसके अलावा फिल्मी गीतकार गुलज़ार की कविताओं के चयन ‘यार जुलाहे’ और ‘मीलों से दिन’ नाम से प्रकाशित हुए हैं. इसके अलावा सहित, थाती और साक्षी जैसी कई पत्रिकाओं का सम्पादन भी उन्होने किया है. उनकी रचनाओं का कई विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है. साथ ही वे देश विदेश में विभिन्न सम्मेलनों में सम्मानित अतिथि के तौर पर आमंत्रित किए जाते रहे हैं.
हिन्दी साहित्य और कला-संस्कृति के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए उन्हे भारत भूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद युवा पुरस्कार, हेमंत स्मृति कविता सम्मान आदि रज़ा फाउण्डेशन अवार्ड, परम्परा ऋतुराज सम्मान, राजीव गांधी राष्ट्रीय एकता सम्मान आदि से भी सम्मानित किया गया है. इसके अतिरिक्त संस्कृति विभाग भारत सरकार की फेलोशिप (संगीत) एवं अयोध्या पर अध्ययन के लिए सीएसडीएस दिल्ली की फेलोशिप भी उन्हे मिली है.
सम्प्रति वे अयोध्या में रहकर साहित्य सृजन कर रहे हैं. इसके साथ ही वे विमला देवी फाउंडेशन न्यास के माध्यम से सांस्कृतिक क्षेत्र में काम करते हैं. अवधी संस्कृति से उनका विशेष अनुराग है. इन दिनों भी वे अवध विशेषकर लखनऊ को लेकर एक महात्वाकांक्षी शोध परियोजना में लगे हुए हैं. इसके अलावा कुछ महान फिल्मी व्यक्तित्वों की जीवनी भी लिख रहे हैं. दुनिया भर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा चुके यतीन्द्र मिश्र लखनऊ को अपना घर मानते हैं और उनका यहां आना जाना और प्रवास लगातार जारी रहता है.
पिछले दिनों यतीन्द्र ने सनतकदा समारोह में शिरकत की. इस दौरान लखनऊ सोसाइटी के संस्थापक ने उनसे मुलाकात करके लखनवी तहज़ीब को लेकर काम करने के संदर्भ में उनके बहुमूल्य सुझाव प्राप्त किए. यतीन्द्र जी के सहयोग और स्नेह के लिए हम उनके आभारी है और साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में उनके अमूल्य योगदान को सलाम करते हैं. अंत में प्रस्तुत है यतीन्द्र की एक कविता-
क्या फ़र्क पड़ता है इससे
अयोध्या में पद की जगह कोई सबद गाए
दूर ननकाना साहब में कोई मतवाला
जपुजी छोड़ कव्वाली ले कर जाए
फ़र्क तो इस बात से भी नहीं पड़ता
हम बाला और मरदाना से पूछ सकें
नानक के बोलों पर गुलतराशी करने वाले
इकतारा थामे उन दोनों के हाथ
अकसर सुर छेड़ते वक़्त
खुसरो और कबीर के घर क्यों घूम आते हैं
फ़र्क तो आज यह भी कहीं नहीं दिखता
बात-बात में रदीफ काफ़िया मिलाने वाले
हर चीज़ का फ़र्क पहचानने वाले
शायद ही झगड़ते हों कभी इसलिए
राम की पहुंच डागुरों की हवेली
और खां साहब की बंदिशों तक क्यों है
और क्यों बैजू से लेकर आज तक
बावरी होने वाली कला की
नई से नई पीढी भी
आगे बढकर सबसे पहले
रहीम और रसखान से दोस्ती करती है।