इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में सिविल सर्विसेज़ के इम्तेहान की तैयारियों में मुब्तला तुलबा से मुखातिब होते हुए फिराक गोरखपुरी फरमाते थे- उर्दू इसलिए पढ़ लो, ताकि अफसर बनने के बाद अफसर दिखाई भी दो. फिराक के इस मकबूल जुमले की सचमुच की आबरू का नाम मनीष शुक्ला है. वे सूबे के उन चुनिंदा अफसरान में हैं जो फिराक की चश्म-ए-बसीरत से भी अफसर दिखाई देते हैं. वगरना तो आम तौर पर अहदे हाज़िर में अफसर हो जाना ही अफसर दिखाई देने के लिए काफी है.
मनीष शुक्ला सौ फीसदी उर्दू के शाइर हैं. वो उर्दू जो उन्होने बड़ी मेहनत से सीखी है. हरचंद के उर्दू उनके यहां फकत एक जुबान का नहीं, एक मुकम्मल तहज़ीब का नाम है और बकौल मनीष जो इसे किसी एक मज़हब के साथ जोड़ते हैं वे न तो इसके तारीखी हवालों की समझ रखते हैं और न ही अपने मआशरे की. उर्दू की तवील रहगुज़र को दयाशंकर नसीम, बृजनारायण चकबस्त, रतननाथ सरशार, जगत मोहन रवां, लम्भू राम जोश, बालमुकुन्द अर्श, रघुपति सहाय फिराक, राम प्रसाद बिस्मिल, महेन्द्र सिंह बेदी सहर, कृष्ण बिहारी नूर जैसे हज़ारों चराग़े-जाविदां बहुत पहले से रौशन करते आ रहे हैं और पिछले पन्द्रह बीस बरस से मनीष शुक्ला भी इस पर अपनी सदाकत का नूर बिखेर रहे हैं. अपने हिस्से की शमा रोशन कर रहे हैं.
यूं तो उनके दिल के दरवाज़े पर शाइरी की मुहब्बत ने पहली दस्तक स्कूल के दिनों में ही दे दी थी लेकिन गेसू-ए-गज़ल के असीर वे कालेज के दिनों की नौजवानी में हुए और इस कदर हुए कि आज तक रिहाई की सूरत नहीं. 1993 में लखनऊ यूनिवर्सिटी से एन्थ्रोपोलॉजी से एम.ए. करने के बाद 1997 में वे प्रोविन्शियल सिविल सर्विस के लिए चुन लिए गए लेकिन यहां पूरे एतमाद के साथ ये कह देना ज़रूरी है कि मनीष शाइर पहले हुए अफसरी बाद में मिली जबकि इन दिनों अफसर बनते ही शाइर बन जाने की बेताबी आम हो गई है.
हालांकि मनीष नहीं मानते कि वे अभी तक शाइर हो पाए हैं, उनमें ऐसा मनवाने की हड़बड़ी भी नहीं दिखती. यही वजह है कि 1988 से ग़ज़ल के पेंचो-खम संवारने में मुब्तेला मनीष की ग़ज़लियात का पहला मजमुआ ‘ख्वाब पत्थर हो गए’ तकरीबन 25 साल बाद नवंबर 2012 में शाया हुआ. वह भी दोस्तों और चाहने वालों के लाख इसरार और अहदो-पैमां के बाद. उसमें भी सिर्फ 86 ग़ज़लें ही हैं. जबकि आमतौर पर आज किसी अफसर-शाइर के मुताबिक उसका 25 साल का शे’री सरमाया, कुल्लियात से कम पर नहीं सिमटता.
तिफ्ले मकतब बने रहने की इन्किसारियत उनको लखनऊ के बुज़ुर्गों से मिली है. सखावत और दयानत उनकी रूह का हिस्सा है. लेकिन फिर भी ये हकीकत है कि अगर गजल आपके लिए सिर्फ एक लफ्ज न होकर, एक पूरी दुनिया है तो उनकी किताब ‘ख़्वाब पत्थर हो गए’ आप ही के लिए है. उनकी गजलें उनकी और सिर्फ उनकी हैं, वे पचास हजार या एक लाख आदमियों के मजमे को खुश करने की गरज़ से नहीं कही गईं. ये शर्मीले मिजाज की गजलें हैं, इनमें इज़्तेराब तो खूब है लेकिन सुनाए जाने का नहीं. लेकिन एक सच्ची बात ये भी है कि शाइरी का लुत्फ शाइरी पढ़कर ही हासिल किया जा सकता है शाइरी की तारीफ को पढ़कर नहीं. और फिर अदबी गिरोहबंदियों के इस दौर में तारीफ से झूठा लफ्ज़ शायद ही कोई हो. लेकिन इसके बावजूद मनीष के अश्आर उन्हे दाद-ओ-तहसीन का मुस्तहक़ बना ही देते हैं.
“किसी के इश्क में बरबाद होना
हमें आया नहीं फरहाद होना
हमने तो पास-ए-अदब में बंदापरवर कह दिया
और वो समझे कि सच में बंदापरवर हो गए
हर किसी के सामने तश्नालबी खुलती नहीं
इक समंदर के सिवा सबसे नदी खुलती नहीं
शाम के ढलने से पहले ये चरागां किसलिए
तीरगी गहरी न हो तो रौशनी खुलती नहीं”
जितना खुलूस मनीष के इन अश्आर में है, उतना ही इनकी शख्सियत में भी है. अक्टूबर 2011 में जब लखनऊ सोसाइटी ने मशहूर शाइर मजाज़ लखनवी की सौंवी सालगिरह के मौके पर बतौर खिराजे अकीदत एक शाम आरास्ता की थी तो मनीष साहब ने मुश्किल हालात के बावजूद बेपनाह मसर्रत के साथ इसमें शिरकत करते हुए शाम को अपने कलाम से नवाज़ा था. जबकि उस दौरान उनके वालिद साहब बेहद अलील थे और खुद मनीष की भी रीढ़ की हड्डी में तकलीफ थी. उन्होने दफ्तर जाना तक बंद कर रखा था. उनका कहना था कि अगर मजाज़ की याद में रखी गई शाम में इतनी मुहब्बतों से बुलाए जाने के बाद वे न पहुंचते तो उनकी तकलीफ और बढ़ जाती, साथ ही अहसासे निदामत के चलते वे फिर कभी शेर नहीं कह पाते. ये हैं मनीष शुक्ला. जबकि उसी शाम में लखनऊ के कई नामी शोअरा ने शहर में होने के बावजूद महज़ इसलिए आना कबूल नहीं किया क्योंकि यहां उन्हे उनकी फीस नहीं मिलती.
19 जनवरी को मनीष शुक्ला ने लखनऊ सोसाइटी की तरफ से हरिवंश राय बच्चन और बृजनारायन चकबस्त की याद में रखी गई शाम-ए-अदब को अपने कलाम से रोशन किया. इस दौरान उन्होने लखनऊ सोसाइटी के संस्थापक से लखनऊ के बारे में अपना तजुर्बा भी साझा किया. हम उनकी इनायतों का शुक्रिया अदा करते हैं और उनकी अदबी लियाकत को सलाम करते हैं.