“छिड़ेगी दैरो हरम में ये बहस मेरे बाद,
कहेंगे लोग कि बेकल कबीर जैसा था”

पद्मश्री बेकल उत्साही वर्तमान समय के सबसे वरिष्ठ और लोकप्रिय कवियों में एक हैं. खड़ी बोली, अवधी और उर्दू तीनों ज़ुबानें उनकी कविता से एक समान समृद्ध होती रहीं हैं. विशेषत: अवधी के विकास और प्रचार प्रसार के लिए किए गए उनके प्रयत्न चिर स्मरणीय हैं. गीत, ग़ज़ल, नज़्म, मुक्तक, रूबाई, दोहा आदि विविध काव्य विधाओं में बेकल जी की बीस से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. अनेक सम्मान उन्हे मिल चुके हैं जिनमें से 1976 में मिला पद्मश्री उल्लेखनीय है. बेकल जी प्रगति के उस शिखर पर विराजमान हैं जहां उनके साथ कविता पढ़ना या मंच साझा करना उनके बाद की पीढ़ी के कवियों के लिए अपने आप में सबसे बड़ा सम्मान है.

सन 1923 में बलरामपुर में एक ज़मीदार परिवार मुहम्मद शफी खां के रूप में जन्मे बेकल साहब को बचपन से ही फकीराना तबीयत मिली. नवयौवन तक पहुंचते-पहुंचते उन्होने ज़मीदारी के ताम-झाम को खुद से अलग कर दिया और अपनी बहुत सी सम्पत्ति ज़रूरतमंदों को दे दी. बकौल बेकल जी बचपन से ही ज़मीदारी उन्हे दूसरों के शोषण का अहसास कराती थी और वे इससे भागने का प्रयास करते थे. ऐसे में जिस जगह उन्हे शरण मिलती थी वो कविता थी.

अरबी,फारसी, उर्दू और हिन्दी के गहन अध्येता बेकल जी ने अपनी कविता की शुरूआत अवधी से की और आज 90 साल की उम्र में भी उनका अवधी में लिखना रूका नहीं है. एक ज़माने में अवधी के दो और बड़े कवियों रमई काका, बंशीधर शुक्ल के साथ बेकल जी की अवधी तिकड़ी मंचों पर मशहूर थी.बेकल जी कहते हैं कि जनता से अपनी बात कहने के लिए तो हमें उन्ही की ज़ुबान बोलनी पड़ेगी न.

“बलम बम्बइया न जायो..
दूनौ जने हियाँ करिबै मजूरी
घरबारी से रहियये न दूरी
हियैं पक्की बनइबै बखरिया,
बलम बम्बइया न जायो..”

तुलसी दास को वे भारत का ही नहीं दुनिया का सबसे बड़ा कवि मानते हैं. बकौल बेकल साहब तुलसी ने अरबी-फारसी के शब्दों को जिस तरह अवधी में घोला वो काम गौर करने लायक है. वे मंझन, कुतुबन, मुल्ला दाउद, अहमद, नूर मुहम्मद,शेख सादिक़ जायसी जैसे अवधी के मुसलमान महाकवियों के काव्य और उनकी परंपरा पर चर्चा करते हुए ज़ोर देकर ये बात कहते हैं कि अवधी अवध प्रदेश की जनभाषा है. धर्म और जाति का प्रभाव इस पर नहीं होता. आप अवध के किसी भी गांव में जाकर देखिए वहां के मुसलमान और हिन्दू एक सी भाषा बोल रहे होंगे. बेशतर आबादी तो गांव में ही है और शहर में तो एक बहुत छोटा तबका है. मै अपनी कविता में गांव के उसी आदमी की बात करता हूं इसलिए अवधी में कहता हूं. यही नही बेकल जी ने जो उर्दू ग़ज़ले भी कहीं उनमें भी गांव, खेत-खलिहान, ग्राम्य जीवन, किसानी संस्कार ही आपको भरे पूरे मिलेंगें.

“फटी कमीज नुची आस्तीन कुछ तो है
गरीब शर्मो हया में हसीन कुछ तो है

लिबास कीमती रख कर भी शहर नंगा है
हमारे गाँव में मोटा महीन कुछ तो है”

1952 से वे मंचों पर लगातार सक्रिय हैं. इसी साल एक कवि सम्मेलन में उनकी अवधी कविता से गद्गद होकर पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हे मुहम्मद शफी खां के स्थान पर बेकल उत्साही नाम दिया था. बेकल जी पंडित नेहरू के बेहद करीब रहे. भारत के एक और प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी बेकल जी के करीबी मित्र रहे. दोनों ने बीस से ज्यादा कवि सम्मेलन साथ पढ़े. बलरामपुर बेकल साहब की कर्मस्थली भी रहा और एक दौर में अटल जी का चुनाव क्षेत्र भी. लेकिन इसके बावजूद राजनैतिक रूप से बेकल उत्साही और अटल बिहारी एक दूसरे के विरोधी रहे. बेकल उत्साही राज्य सभा के सदस्य भी रहे और इस दौरान उन्होने अवध प्रदेश की समस्याओं और मुद्दों को गंभीरता के साथ संसद में उठाया. संसद की कई समितियों के भी वे मेम्बर रहे. उस दौर में जब दक्षिण में हिन्दी विरोधी लहर चल रही थी बेकल जी ने दक्षिण में घूम घूम कर अवधी और हिन्दी कवि सम्मेलन किए और वहां के लोगों को अपनी बात समझाने की भरसक कोशिश की.

बेकल जी चाहते हैं कि सरकार अवधी के विकास के लिए गंभीरता से काम करे. ताकि अपने घर की जुबान के प्रति हमारा गौरव-बोध मजबूत हो. लखनऊ में अवधी के अध्ययन के लिए विश्व स्तर का संस्थान बने जिसमें एक साहित्यिक संग्रहालय और पुस्तकालय भी हो. साथ ही भोजपुरी की तरह अवधी की भी एक फिल्म इंडस्ट्री स्थापित हो जिसका कि केंद्र लखनऊ में हो.

लखनऊ सोसाइटी के संस्थापक से बेकल जी ने कहा कि अवधी के लिए जब भी वे कोई आयोजन या काम करेंगे, उनका सहयोग लखनऊ सोसाइटी को हमेशा मिलेगा. हम बेकल जी के अपार स्नेह के लिए उनके हमेशा आभारी रहेंगे.

“अजब है आजकल की दोस्ती भी, दोस्ती ऐसी
जहाँ कुछ फ़ायदा देखा तो पत्ता काट जाती है

तेरी वादी से हर इक साल बर्फीली हवा आकर
हमारे साथ गर्मी का महीना काट जाती है

किसी कुटिया को जब “बेकल”महल का रूप देता हूँ
शंहशाही की ज़िद्द मेरा अंगूठा काट जाती है”